कितनी अच्छी व्यवस्था थी | वो महिलाएँ अपने बच्चो को संभालती ,घर के सभी बड़े – बूढों को संभालती | सुबह बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजती ,उसके बाद सभी के लिए खाना बनाती |साफ़- सफाई करने और गाय- भैसों को चारा देने के बाद खेतो में काम करने निकल जाती | दोपहर में आके घर पे सभी को खिलाती ,बर्तन साफ़ करती फिर खेतो में निकल जाती | शाम को आके बच्चों को पढ़ाती ,रात का खाना बनाती ,सभी को खिलाती ,बर्तन साफ़ करती और फिर सबके सो जाने के बाद मोहल्ले के स्वयं सहायता समूह का रजिस्टर देखती | बाद में पास के एक एन. जी. ओ. से लिए गये स्वेटर बनाने के आर्डर को भी समय पर पूरा करना था तो रात को बुनने बैठ जाती | जब खेतो में काम नही होता तो बुनने के लिए ज्यादा आर्डर ले लेती | रात में जंगल में आग लगने पर यही महिलाये आग बुझाने जाती क्योंकि स्वयं सहायता समूह से हुए लाभ के पैसे से इन महिलाओ ने गाँव का सामूहिक पौधशाला बनाया था , उसे मेहनत से सींचा था, देखभाल की थी |अगर जंगल में लगा आग न बुझाती तो उनके पौधों के जलने का खतरा होता |बाघ के आने की खबर मिलने पर ये महिलाये थाली- डिब्बें बजाते हुए उसे बस्ती से दूर भगाने की कोशिश करती ताकि उनका परिवार और मवेशी सुरक्षित रह सके …|
ये उस देश की ज्यादातर महिलाओं की दिनचर्या है जहाँ महिलाओ को कमजोर मान के उन्हें बहुत सारे अवसरों से वंचित किया जाता है |अवसरों की तो बात छोड़िये, यहाँ तो ऑटो वाले ये कह के महिलाओं को आगे की सीट पर नही बैठाते की ‘लेडिज सवारी है’ |सिगरेट फुकता हुआ पुरुष सिगरेट खरीदने आई महिला को ऐसे घूर -घूर के देखता है जैसे अभी अभी सिगरेट का अविष्कार होते देखा हो | आँखों में दया की भीख मांगते हुए पुरुष साथी ये कह के औरों से सीट मांगता है कि “अरे लेडिज सवारी है “|रिक्शावाला ये कह के किराया ज्यादा मांगता है की “अरे मैडम रात का टाइम है” |
मेरे समझ में आज तक नहीं आया है कि आखिर ‘कमजोर’ होना कहते किसको है ?